ताबड़तोड़ नक्सली हमले के लिए जिम्मेदार कौन?


पांचवें नंबर से पहले नंबर पर क्यों आया छत्तीसगढ़? 

( 17 दिसंबर 2007 को हिन्दी दैनिक नेशनल लुक में प्रकाशित)

बबलू तिवारी/रायपुर
पांच साल पहले तक छत्तीसगढ़ नक्सलियों के निशाने पर पांचवें नंबर था, लेकिन पिछले चार साल से यह पहले नंबर पर है। नक्सलियों ने अपने रेड कारपेट का केंद्र अबुझमाड़ को बना लिया लिया है। ये सभी तथ्य इस बात की ओर इशारा करते हैं कि क्या राज्य सरकार ने बगैर कोई तैयारी किए ही नक्सलियों को ललकार दिया है। जिसका परिणाम गरीब आदिवासियों और पुलिसकर्मियों की ताबड़तोड़ नक्सलियों द्वारा की जा रही हत्या के रूप में सामने आ रही है। राजधानी में बैठे राजनेता और वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जब-जब भी नक्सलियों का जड़ से खात्मा करने का बयान देते हैं, उसके दो-तीन के भीतर नक्सली बेगुनाहों और सुरक्षाकर्मियों को मौत के घाट उतारकर जवाब दे देते हैं। सरकार और पुलिस मुख्यालय सिर्फ भाषणबाजी में लगा हुआ है और नक्सली रोज खून की होली खेल रहे हैं। कल दंतेवाड़ा जेल में हुई घटना के बाद राज्य सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करना होगा। नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब नक्सली राजधानी रायपुर पर भी हमला करने में नहीं हिचकेंगे। विपक्ष को भी इस समय राजनीति छोड़कर पुलिसकर्मियों और जनता के लिए नासूर हो चुकी इस समस्या के निदान के लिए राज्य सरकार का साथ देना चाहिए।
नक्सलियों ने इस समय छत्तीसगढ़ को मुख्य केंद्र बना रखा है। जबकि कुछ साल पहले तक आंध्र प्रदेश उनके पहले निशाने पर था। सूत्रों के मुताबिक इस साल अक्टूबर तक नक्सलियों ने अपने प्रभाव वाले 13 राज्यों में 1285 नक्सली वारदातों को अंजाम दिया है, जिनमें 500 वारदातें उन्होंने छत्तीसगढ़ में अंजाम दिया। केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में बताया गया है कि इस साल अक्टूबर तक नक्सलियों ने 13 राज्यों में 188 सुरक्षाकर्मियों तथा 383 नागरिकों की हत्या की है, इसमें भी छत्तीसगढ़ में मारे गए सुरक्षाकर्मियों और नागरिकों की संख्या सर्वाधिक है। राज्य शासन को इस बात पर विचार करना चाहिए कि वो कौन से कारण हैं जिसकी वजह से छत्तीसगढ़ पहले नंबर पर आ गया है।

हर कदम पर घोर लापरवाही
कल की घटना के लिए जांच शुरू कर दी गई है, जिसकी गाज कुछ पुलिसकर्मियों पर गिरना सुनिश्चित है, लेकिन राज्य सरकार सिर्फ इन पुलिसकर्मियों को दंडित करके अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। राज्य में नक्सली समस्या शुरू होने के बाद से यह पहला अवसर है,जब नक्सलियों ने किसी जेल से अपने 105 साथियों सहित 298 कैदियों को छुड़ाया है। घटना के बाद जेल के सुरक्षा व्यवस्था के लिए की जाने वाले एहतियात की पोल खुल गई है। जिस समय नक्सली नेता सुजीत ने इस घटना को अंजाम दिया, उस समय जेल के अंदर मात्र चार सुरक्षाकर्मी, वो भी बगैर हथियार के तैनात थे। जेल की सुरक्षा के लिए इस समय 35 सुरक्षाकर्मियों की एक प्लाटून तैनात की गई है। जिसमें से मात्र 29 सुरक्षाकर्मी इस समय डयूटी पर हैं। जेल अधिकारियों ने बताया कि रात में नक्सली हमले की आशंका ज्यादा रहती है, इसलिए रात में ही ज्यादा सुरक्षाकर्मी तैनात किए जाते हैं। दंतेवाड़ा उप जेल में इस समय दिन की पाली में चार और रात की पाली में दो दर्जन पुलिसकर्मी तैनात किए जा रहे थे। दिन की पाली में सुरक्षाकर्मी बगैर हथियार के ही सुरक्षा व्यवस्था संभालते थे, जबकि रात की पाली में सभी के पास हथियार रहते थे। उप जेल दंतेवाड़ा हेडक्वाटर से करीब दो किमी दूरी पर है। जेल परिसर के पास ही नेता प्रतिपक्ष और सलवा जुड़ूम अभियान की अगुवाई कर रहे महेंद्र कर्मा का पैतृक निवास भी है। इस लिहाज से भी इस इलाके की सुरक्षा व्यवस्था कड़ी रहनी चाहिए थी। सुरक्षा इंतजामों को देखकर लगता है कि जिला प्रशासन और जेल प्रशासन दोनों ने ही सुरक्षा व्यवस्था को लेकर घोर लापरवाही बरती है। जेल में क्षमता से दो गुने से अधिक कैदियों को रखा गया था। यह भी जेल अधिकारियों की लापरवाही को बताता है।
सैकड़ों पुलिसकर्मियों की मेहनत पर फिरा पानी
जिन 105 नक्सलियों को कल नक्सली छुड़ा कर ले गए उन्हें पकड़ने के लिए सैकड़ों पुलिसकर्मियों ने कुर्बानी दी थी। इसमें कई हार्डकोर नक्सली भी हैं, जिन्हें गिरफ्तार करने के लिए पुलिस के जवानों ने सालोंसाल जंगल की खाक छानी थी। कई पुलिसकर्मी इस दौरान शहीद भी हुए। लेकिन कल जेल प्रशासन की लापरवाही के कारण उनकी बरसों की मेहनत पर पानी फिर गया। बताते हैं कि फरार हुए 105 में से 25 हार्डकोर नक्सली हैं, जिन्होंने सैकड़ों लोगों की जान ली है। इनके भाग निकलने से नक्सल विरोधी अभियान को गहरा धक्का लगा है। इसका खामियाजा प्रशासन को जल्द ही भुगतना पड़ सकता है। सूत्रों का कहना है कि नक्सलियों के साथ भागे अन्य कैदी भी नक्सली कैंप पहुंच सकते हैं। उनके नक्सली बनने की भी आशंका जताई गई है।

आंध्र प्रदेश से सीखे सरकार
आज जिन परिस्थितयों का सामना छत्तीसगढ़ कर रहा है कुछ ऐसी ही हालत पांच साल पहले आंध्र प्रदेश की थी। आंध्र प्रदेश नक्सलियों के पहले नंबर था। लेकिन आंध्र प्रदेश ने इससे निपटने के लिए जो कार्ययोजना बनाई, उसी का परिणाम है कि आज आंध्र प्रदेश में 70 फीसदी नक्सली समस्या खत्म हो गई है। नक्सलियों पर इसका इतना आतंक चढ़ा कि वे आंध्र प्रदेश छोड़कर दूसरे राज्यों में भाग गए। बताते हैं कि आंध्र प्रदेश की योजना नक्सलियों से निपटने में काफी कारगर है। वहां पुलिस फोर्स से दो-दो साल की समयावधि के लिए जवानों को नक्सल आपरेशन पर भेजा जाता है। उन्हें इस दौरान सामान्य से दोगुना वेतन, उनके परिवार की की देखभाल के लिए सुरक्षित जोन, पुलिसकर्मियों का भारी भरकम बीमा करवाया जाता है। इसके साथ ही नक्सलियों के एनकाउंटर पर आकर्षक इनाम भी घोषित है, जो उन्हें एनकाउंटर के बाद मौके पर सीनियर अधिकारी पहुंच कर प्रदान करता है। इंटेलीजेंस के लिए भी राज्य सरकार भारी भरकम राशि खर्च करती है। एसपी स्तर के अधिकारी को सूचना एकत्र करने के लिए 5 लाख तक की राशि प्रत्येक माह दी जाती। वहीं एसडीओपी स्तर के अधिकारी को यह 2 लाख रुपए के करीब है। नक्सल क्षेत्र में तैनात पुलिसकर्मियों को 15 दिन के आपरेशन के बाद 15 दिन छुट्टी दी जाती है। दो साल के बाद उन्हें दोबारा सामान्य वेतन पर दूसरे इलाकों में पदस्थ कर दिया जाता है। आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा नक्सल अभियान पर किए जा रहे खर्च और पुलिसकर्मियों की सुविधा से छत्तीसगढ़ के अभियान की बराबरी नहीं की जा सकती है। हालांकि इसी का परिणाम है कि आंध्र प्रदेश में 70 प्रतिशत नक्सल समस्य खत्म हो गई है।
सुरक्षाकर्मियों के लिए पनिश और नक्सलियों का मिशन
छग सरकार द्वारा नक्सलियों से मोर्चा ले रहे पुलिस व सुरक्षाकर्मियों को अभी प्रदान की जा रही सुविधा नाकाफी है। आज भी नक्सल क्षेत्र में पुलिसकर्मियों को पनिश करने के लिए तैनात किया जाता है। कई नेता और पुलिस अधिकारी सुरक्षाकर्मियों को नक्सली क्षेत्र में भेजने की धमकी देते रहते हैं। वहींनक्सलियों के लिए यह मिशन हैं। राज्य शासन को इस बेसिक फर्क को समझना होगा। पुलिसकर्मियों को जो सुविधा नक्सलियों से जुझने के लिए मिलनी चाहिए वह न के बराबर है। उनके सुरक्षा इंतजाम का भी कोई मजबूत बंदोबस्त नहीं है। नक्सली जब चाहते हैं सुरक्षाकर्मियों को मौत के घाट उतार देते हैं। नक्सली क्षेत्र में तैनात पुलिसकर्मियों का मनोबल भी टूट गया है। ज्यादातर पुलिसकर्मी और अफसर सिर्फ समय काटने में लगे रहते हैं, क्योंकि कार्रवाई के लिए जो सुविधाएं और बैकअप चाहिए वह राज्य सरकार उपलब्ध नहीं करा पा रही। धुर नक्सली क्षेत्र में सैकड़ों थानों में नाममात्र के पुलिसकर्मी बगैर हथियार के तैनात किए गए हैं। जो नक्सलियों के लिए साफ्ट टारगेट हैं। राज्य पुलिस का इंटेलीजेंस नेटवर्क भी इन इलाकों में फेल है। इंटेलीजेंस अफसर अपना पल्ला यह कहकर झाड़ लेते हैं कि उनेक पास पर्याप्त बजट नहीं है। नक्सलियों की एक खबर भी पुलिस को पहले नहीं मिल पाती, जबकि पुलिस की हर हरकत की खबर नक्सलियों को पहले से रहती है। यही हालत सलवा जुड़ूम के कार्यकर्ताओँ और नेताओं की हैं। वे अपनी जान पर खेलकर नक्सलियों से लोहा ले रहे हैं। लेकिन राज्य शासन उन्हें भी सुरक्षा उपलब्ध नहीं करा पा रही है। राज्य सरकार को अभियान की रूपरेखा में बदलाव करना चाहिए। नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब राज्य के सभी 18 जिले नक्सल प्रभावित हो जाएंगे।
सुरक्षा इंतजाम पर उंगली उठाई थी जोगी ने  
पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने शुरू से ही राज्य सरकार के इस अभियान का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि राज्य सरकार बगैर पुख्ता प्रबंध के ही अभियान शुरू कर दिया है। इसमें सलवा जुड़ूम के माध्यम से आदिवासियों को जोड़ने पर भी उन्होंने उंगली उठाई थी। उनका कहना था कि ऐसा अभियान तभी चलाना चाहिए जब सरकार आदिवासियों और पुलिस को प्रदान की जाने वाले इंतजाम पूरे कर ले। अन्यथा इसका गंभीर परिणाम बस्तर के निरीह आदिवासियों को भुगतना पड़ेगा। उन्होंने खुला अभियान चलाने से पहले राज्य शासन को पूरी तैयारी करने की नसीहत भी दी थी। लेकिन तब राज्य सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। श्री जोगी की बात अब सच साबित होने लगी है। नक्सली अब और खूंखार हो गए हैं। उनके हमले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। नक्सल क्षेत्र तथा पुलिस हेडक्वाटर में नक्सल अभियान का जिम्मा उठा रहे अफसर भी ऐसी ही बात करने लगे हैं। उनका कहना है कि राज्य सरकार इस अभियान में सीधा पार्टी बन गई है। जिसकी वजह से नक्सली अपना वजूद दिखाने के लिए लगातार हमले कर रहे हैं, जबकि राज्य सरकार के पास उनसे निपटने के लिए नूल संसाधन ही नहीं हैं। धूर नक्सली जिलों में ही पुलिस फोर्स की भारी कमी हैं। उन्हें अभियान के हिसाब से सुविधा भी नहीं प्रदान की जा रही है। जिससे सुरक्षाकर्मियों का भी मनोबल गिर गया है।

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