" नेता-अफसर भी अंधविश्वास का साथ देते हैं "



( रायपुर,  9 फरवरी 2008, रात 10.30 बजे  ) 
अंधविश्वास दूर करने और लोगों को चमत्कारों की असलियत बताने में बरसों से लगे डा. दिनेश मिश्रा को लगता है कि टोनही प्रताड़ना के खिलाफ बने कानून को और अधिक सख्त बनाने की जरूरत है। दोषियों पर जुर्माने की रकम बढ़ाई जानी चाहिए और वह रकम पीड़ित महिला को दी जानी चाहिए। वे मानते हैं कि गांव गांव में जागरूकता फैलाने के इस सफर में उन्हें अभी मीलों चलना है लेकिन इस बात का संतोष है कि लोग उनसे जुड़ते जा रहे हैं और पहले से कहीं अधिक सूचनाएं उन तक पहुंच रही हैं। उन्हें इस बात का दुख है कि पढ़े लिखे लोगों में से भी बहुत से लोग अंधविश्वासी हैं। बहुत से नेता-अफसर भी सार्वजनिक तौर पर अंधविश्वास के साथ खड़े नजर आते हैं। कुछ वोट बैंक के कारण इनके खिलाफ बोलने से बचते हैं। अंधविश्वास से लड़ने के लिए शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं के विस्तार को डा. मिश्र महत्वपूर्ण मानते हैं। मुख्यमंत्री को वे हर जिले में एक एक मेडिकल कॉलेज खोलने का सुझाव भी दे चुके हैं। नेशनल लुक के लिए बबलू तिवारी ने उनसे अंधविश्वास और विज्ञान को लेकर ढेर सारे सवालों के साथ लंबी चर्चा की।

कैसे शुरू हुआ यह सफर...
बात शायद 1992 के आसपास की है। शहर के एक युवा डाक्टर ने अपनी नेत्र चिकित्सा की नई-नई क्लीनिक खोली थी। व्यवसाय के रूप में उसने डाक्टरी तो शुरू कर दी लेकिन उसके अंदर का मन उसे समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों के प्रति हरदम कुरेदते रहता था। मीडिया के माध्यम से इन कुरीतियों और अंधविश्वास की आड़ में स्वार्थी और अशिक्षित जनता द्वारा किए जा रहे मानवाधिकार हनन को लेकर उसका मन हमेशा कचोटते रहता था। इस बीच गांवों से आने वाले मरीज भी अपने-अपने इलाकों में धर्म, ज्योतिष, जादू-टोना की आड़ में होने वाले अत्याचारों से उसे परिचित कराते रहते थे। युवा डाक्टर में इसके लिए कुछ करने का दीया तो जल रहा था, लेकिन वह उसी के अंदर ही था। धीरे-धीरे करीब तीन साल बीत गए, लेकिन उसने अपने दीए को बुझने नहीं दिया। फिर 1995 के आसपास का वह समय आया जब उसने छत्तीसगढ़ में जादू-टोना और झाड़ फूंक के प्रति लोगों मे फैले अंधविश्वास को अपने दोस्तों-परिचितों के साथ एक संगठन के माध्यम से दूर करना शुरू किया। पिछले बारह साल से यह अभियान लगातार चल रहा है। इस बीच कई बैगाओं-ज्योतिषियों की पोल खुलने के बाद उसे 1 सप्ताह के भीतर अकाल मौत होने का डर भी दिखाया, लेकिन सालों-सालों बीत जाने के बाद भी आज तक वह दिन नहीं आया। अब जिस बैगा-तांत्रिक के सामने भूत-प्रेत थर-थर कांपते थे, वे अब इस युवा डाक्टर का नाम सुनकर कांपते हैं, और आने की खबर मिलने पर अपना बोरिया-बिस्तर लेकर गायब हो जाते हैं। शुरू में डाक्टर के दोस्तों, रिश्तेदारों ने इसे एक डाक्टर का पागलपन करार दिया। कइयों जगह से पत्र आए, जिसमें उन्हें अपनी डाक्टरी पर ध्यान देने का सुझाव दिया गया। लेकिन इससे वह विचलित नहीं हुआ और अपने साथियों के साथ इस अभियान में जुटे रहा। इसका खामियाजा भी डाक्टर अपने क्लीनिक की आमदनी में कमी और परिवार के दिए जाने वाले समय में कटौती के रूप में देना पड़ा। लेकिन उसने अपने मन के दीए को आजतक बुझने नहीं दिया। अब यही दीया पूरे समाज को रोशन कर रहा है। इस दीए के जीवन के लिए उनके संगठन ने कभी भी सरकारी तेल-बाती का सहारा भी नहीं लिया। अब इस युवा डाक्टर- डा. दिनेश मिश्र को छत्तीसगढ़ में ही नहीं बल्कि पूरे देश में एक निस्वार्थ समाजसेवी और वैज्ञानिक जागरूकता फैलाने वाले डाक्टर के रूप में देखता है।

0. आपके हिसाब से वैज्ञानिक जागरूकता को लेकर छत्तीसगढ़ की क्या स्थिति रही है?
00. वैज्ञानिक जागरूकता के प्रति यहां की स्थिति बहुत खराब है। यहां के लोग बहुत जल्दी किसी भी अफवाह पर विश्वास कर लेते हैं। समय-समय पर यह देखने को मिलते रहा है, जैसे गांवों में चुड़ैल की अफवाह की वजह से सैकड़ों गावों में घर के बाहर ओम नम: शिवाय लिखे हुए मिलता था। अभी एक बच्चे की मां वाली अफवाह में भी यही हुआ। मूर्ति के दूध पीने की घटना होती है तो पूरे प्रदेश में इसका असर देखने को मिलता है। यहां के लोग सीधे-साधे हैं, जागरूकता की कमी के कारण वे अफवाहों पर तुरंत भरोसा कर लेते हैं।

0. यहां ऐसी कौन-कौन सी धारणाएं चलन में हैं, जिन्हें विज्ञान नहीं मानता?
00. यहां सबसे ज्यादा मान्यता टोनही की है। हम लोगों को करीब 150 महिलाओं के नाम मालूम हैं, जिन्हें जादू-टोना करने के आरोप में टोनही करार देकर मौत के घाट उतार दिया गया। हम लोगों की इनमें से बहुत सारी महिलाओं के परिजनों, गांववालों तथा इन्हें मारने वालों से बात हुई है, जिसमें उन्होंने माना है कि महिालओं को अंधविश्वास के कारण मारा गया है। अभी मैं तर्रा गांव गया था। जहां गांव वालों ने फुलवंतिन बाई नाम की एक महिला को टोनही के नाम पर मार डाला था। हमारी गांववालों, जिस बच्चे की वजह से फुलवंतिन को टोनही करार दिया उससे (अब वह बड़ा हो गया है), उसके मां-बाप तथा सरंपच आदि से बात की। आज की स्थिति जिस परिवार की वजह महिला को टोनही करार देकर गांववालों ने मार डाला था, वह ठीक-ठाक और सुखी है, लेकिन फुलवंतिन का तो पूरा परिवार उजड़ गया। गांववाले अब मानते हैं कि उन्होंने अंधविश्वास की वजह से महिला को मार डाला था। कई सारी बीमारियों को लेकर भी यहां अंधविश्वास है, लोग मानते हैं कि इसके पीछे जादू-टोने का हाथ हाथ है। किसी ने नजर लगा दिया है। कई मामलों में जिसका हमें पता चल जाता है, हम मरीज को शहर लेकर आते हैं और इलाज कराते हैं।

0. इस मामले में आप शिक्षा की क्या भूमिका पाते हैं?
00. शिक्षा तो बहुत आवश्यक है, इसी से लोगों में वैज्ञानिक जागरूकता बढ़ेगी। अभी भी हम जब बहुत सारी जगहों पर जाते हैं तो लोग बताते हैं कि उनके यहां प्रायमरी और 8 वीं के बाद शिक्षा के लिए स्कूल नहीं हैं। बच्चों को साइकिल से 10-15 किमी दूर पढ़ने के लिए जाना पड़ता है। कुछ लोग लड़कों को तो भेज देते हैं, लेकिन लड़कियों को भेजने से परहेज करते हैं। ग्रामीण इलाकों में 10-20 किमी तक स्कूल नहीं, ऊपर से हमारे प्रदेश का कई हिस्सा नक्सलवाद से प्रभावित है, जिसके वजह से वहां के लोग अपने बच्चों की पढ़ाईको लेकर ज्यादा उत्सुकता नहीं दिखाते हैं। ज्यादातर लोग 5-8 वीं के बाद अपने बच्चों की शिक्षा रोक देते हैं और उन्हें रोजगार आदि में लगा देते हैं।

0. ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं को इन बुराइयों से निपटने में आप कितना सक्षम पाते हैं?
00. शिक्षा जैसी स्थिति ग्रामीण इलाकों की स्वास्थ्य सुविधाओं का भी है। दूर-दूर तक अस्पताल नहीं हैं, अगर हैं भी तो वहां डाक्टर-दवाईयां नहीं हैं। अस्पताल में इलाज का इंतजाम नहीं होता। शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा धीरे-धीरे सुधर रही हैं, लेकिन अभी इसे दुरूस्त होने में बहुत लंबा समय लगेगा। मैंने कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री से कहा भी था कि हर जिले में एक-एक मेडिकल कालेज खोला जाए। इससे शिक्षा और चिकित्सा की ढेर सारी समस्या खतम हो जाएगी। लोग शहरों में नौकरी करना चाहते हैं तो उन्हें इन कालेजों में ही नौकरी करने दो। इससे उन लोगों को भी फायदा होगा जो मेडिकल की पढ़ाई के लिए विदेश या दूसरे प्रांत जाते हैं। यहां जब पढ़ाई की अच्छी सुविधा हो जाएगी तो छात्र बाहर क्यों जाएंगे?

0. कुछ पढ़े-लिखे लोग भी अंध विश्वास करते हैं, इसका अनपढ़ लोगों पर कैसा असर पड़ता है ? कुछ घटनाएं बताएं जो आप को याद हों।
00. बहुत सारे पढ़े-लिखे लोग अंधविश्वास पर भरोसा करते हैं। ये वे लोग होते हैं, जो चमत्कारिक रूप से सफल होने या बहुत जल्द सफल होने का ख्याल रखते हैं। वे चाहते हैं कि कोई ताबीज मिल जाए या अंगूठी मिल जाए जो उन्हें जल्द से सफल बना दे। एक पूर्व केंद्रीयमंत्री हैं जिन्होंने सार्वजनिक मंच से माना था कि वे अंधविश्वास को मानते हैं। प्रदेश के एक दिग्गज नेता के बारे में भी कहा जाता रहा है कि उनकी जो सड़क दुर्घटना हुई थी वह जादू-टोने के कारण हुई थी। राजनेता भी अंधविश्वास को बाते और प्रश्रय देते हैं। लोगों को लगता है कि इतना बड़ा पढ़ा-लिखा आदमी जिसके पास सारी सुविधाएं हैं जब वह इसे मान रहा है तो हम क्यों नहीं। हमारे पास तो न कोई सुख-सुविधा का साधन हैं और न ही पढ़ाई और चिकित्सा का। लेकिन इन लोगों को यह भी देखना चाहिए कि जब ये बीमार होते हैं तो अपना इलाज बैगा-ज्योतिष से कराने के बदले एस्कार्ट, अपोलो आदि में क्यों कराते हैं। बड़े-बड़े अफसर भी अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं, छग के एक पुलिस अफसर को तो हम सभी लोग जानते हैं जिसने एक बाबा की शरण ले ली थी और उनका भक्त हो गया। यूपी के आईजी श्री पांडा का उदाहरण हैं यो लोग सब कुछ जानते हुए भी अंधविश्वास को आत्मसात करते हैं। जिसका दूसरों पर असर पड़ता।

0.यूपी के आईजी से मिलते जुलते मामलों को मानसिक बीमारी के नजरिए से भी क्या देखा जा सकता है, किन राजनेताओं को आप अंधविश्वास के खिलाफ खड़ा हुआ पाते हैं?
00. यूपी के आईजी वाले मामले में तो डाक्टरों ने कहा ही था कि उन्हें बाईकूलर सिंड्रोम नामक मानसिक बीमारी हो गई है। इसमें आदमी कुछ समय के लिए अपने को कुछ दूसरा ही समझने लगता है। गावों में भूत-प्रेत लोगों के आने वाले मामले में भी यही रहता है। लेकिन भूत-प्रेत में लोगों को मार पड़ती है पर जब वहीं कोई इसे भगवान का नाम दे देता है तो उसके पास लोगों का तांता लग जाता है। उसकी पूजा होने लगती है। इसे हम अभी आई भूल-भूलैया और लगे रहो मुन्नाबाई जैसी फिल्मों से अच्छी तरह समझ सकते हैं। जिसमें इस बीमारी के बारे में अच्छे से समझाया गया है।

0. टोनही की धारणा के बारे में कुछ बताएं ?
00. इसके मूल में तो अशिक्षा है। पहले जब लोगों को बीमारियों के बारे में जानकारी नही होती थी और कोई बीमार हो जाता था तो इसके पीछे वे जादू-टोने को कारण मानते थे। इसमें सबसे सरल शिकार वे महिलाएं होती हैं, जो विधवा हो, जिनके बच्चें या पति मर गए हों, शारीरिक रूप से कमजोर रहती हैं, जिनकी हरकतें संदिग्ध होती हैं और सबसे बड़ी बात जो गरीब होती थीं। इन्हें लोग टोनही का नाम दे देते थे और किसी के बीमार होने पर उन्हें ही दोषी माना जाता है। जिसके लिए उनकी सार्वजनिक रूप से पिटाई के साथ मार दिया भी दिया जाता था। यह कुप्रथा सिर्फ छत्तीसगढ़ में ही नहीं है बल्कि उड़ीसा, असम, बिहार, राजस्थान, हरियाणा आदि जगहों पर भी यह व्याप्त हैं। वहां इसे डायन के रूप में जाना जाता है। कई जगह तो ऐसी घटना में उन्हें गड़ासे से काट दिया जाता है। कभी-कभी यह भी देखा गया है कि अगर ऐसी महिला ने किसी को खाने को दे दिया, या किसी को छू लिया भले वह महिला किसी संक्रमण का शिकार हो जिसकेो वजह से उसके संपर्क में आने वाला बीमार हो गया हो । उसके बाद अगर वह बीमार पड़ गया तो लोग उस महिला को ही टोनही करार दे देते हैं। इसमें यह भी है कि अभी तक की एक घटना में भी किसी संपन्न घर की महिला पर यह आरोप नहीं लगया गया है और न ही किसी पुरूष को। क्योंकि संपन्न घर की महिला के परिवार वाले इसका प्रतिरोध करते हैं और पुरूष विरोध करता ही है। हम जहां भी जाते हैं लोगों को यही बताते हैं कि अगर महिला में ऐसी कोई शक्ति होती तो वह गरीब क्यों रहती? वह अपने को बचा क्यों नहीं पाई? वह लोगों से मुकाबला कर सकती थी। शारीरिक रूप से ठीक हो सकती थी। लोगों के पास इसका जवाब नहीं होता। ऐसी महिलाएं ही प्रताड़ित की जाती हैं, जिनकी मदद करने वाला कोई नहीं होता। हमें आज तक एक भी संपन्न महिला ऐसी नहीं मिली जिस पर टोनही होने का आरोप लगा हो।

0. टोनही कानून बनाने में आपके संगठन की क्या भूमिका रही ?
00. हमने इसके लिए अपने स्तर पर पूरा प्रयास किया। मानवाधिकार आयोग से मिले, राज्य मानवाधिकार आयोग में भी इसके लिए मांग की। मुख्यमंत्री से मिले, विधायकों को पत्र लिखा कि इस मामले को उठाया जाए। धीरे-धीरे यह कानून तो बन गया। लेकिन अभी भी गावों में इस कानून के प्रति जागरूकता नहीं हुई है। हम लोग हरेली आदि अवसरों पर गावों में जाकर इसका प्रचार-प्रसार करते रहते हैं। हम गांववालों को बताते हैं कि जिस चीज से आप डर रहे हो वह सारा सामान तो आपके आसपास मौजूद है। गांव गंदगी फैली हुई है, लोगों में शारीरिक साफ-सफाई का अभाव है। जिसकी वजह से मलेरिया, दस्त आदि बीमारी हो रही है। कोी महिला आपको थोड़ी ना बीमार कर रही है। कोई बैगा आप को बोल देगा कि इसके लिए कोई महिला जिम्मेदार तो आप उसके खिलाफ खड़े हो जाते हो। बैगा को बीमारी के इलाज के लिए बुलाना ही नहीं चाहिए। कई बार देखा गया है कि घर में बैगा झाड़-फूंक के दौरान कह देता है कि बाहर जो महिला घूम रही है उसी ने टोना किया है। होता यह है कि गांवों में घर में शौचालय का इंतजाम होता नहीं है, महिलाओं को बाहर जान पड़ता है। उसी समय बैगा की बात मानकर लोग महिला ढूंढ़ना शुरू कर देते हैं। नित्यक्रिया के लिए बाहर गई महिला अगर उन्हें मिल जाती है तो वे उसी को टोनही मान लेते हैं। हमने कई मामलों के पीछे ऐसा कारण पाया है। हम लोग हरेली समय गावों, श्मशान घाट, तालाबों पर जाकर वहां झाड़-फूंक कर रहे लोगों को यही समझाते हैं।

0. टोनही के अंधविश्वास की वजह से क्या नुकसान समाज-देश को होता है ?
00. देखिए आप जब किसी को टोनही के नाम पर मार डालते हो या उसे सार्वजनिक रूप से मारते-पीटते हो तो यह उसके मानवाधिकार का हनन होता है। कई बार ऐसी महिलाओं का गांव से बहिष्कार हो जाता है। लोग उनसे कोई संबंध नहीं रखते हैं, बात नहीं करते हैं। यह चीज बिल्कुल गलत है। इससे देश को समाज को नकसान निसंदेह रूप से होता है।

0. इन प्रकरणों में कुछ स्वार्थी लोगों द्वारा अपने फायदा के लिए किसी महिला टोनही घोषित करने की घटनाएं भी क्या देखने को मिलती हैं? आप लोगों ऐसी महिलाओं के पुनर्वास के लिए भी कुछ करते हैं?
00. कहीं-कहीं किसी स्वार्थी व्यक्ति का हाथ होने का मामला पाया जाता है, लेकिन इसकी संख्या न के ही बराबर होती हैं। क्योंकि ज्यादातर मामलों में समूह द्वारा महिलाओं को प्रताड़ित किया जाता है। पुनर्वास के लिए हम सरकार से ऐसी महिलाओं की पहचान करके उन्हें राहत दिलाने का काम करते रहते हैं। ऐसी महिलाओं को रहने के लिए राज्य सरकार से आवास भी उपलब्ध कराने के लिए हम लगातार मांग करते रहते हैं। हम लोग सरकार से यह भी मांग कर रहे हैं कि ऐसी घटनाओं की शिकार महिलाओं के पुनर्वास के लिए एक नीति बनाई जाए। हम लोग चूंकि आज तक सरकार से पैसा लेकर कोई काम नहीं किया है। हमारा संगठन आपस में जुटाए गए धन से ही प्रचार प्रसार का काम करता है। हमने एकाध बार ऐसा कोई प्रोजेक्ट बनाने की कोशिश भी करनी चाही तो पता चला कि प्रोजेक्ट को पास कराने के लिए इतना प्रसेंट कमीशन देना होगा। फिर हमने इससे अपना हाथ खींच लिय॥ क्योंकि हम अपने उद्देश्य से भटकना नहीं चाहते थे।

0. टोनही और अंधविश्वास की कुछ बड़ी और वीभत्स घटनाएं ?
00. एक घटना लचकेरा की थी, जिसमें तीन महिलाओं को गांववालों ने पहले करेंट लगाया। फिर उन्हें नंगा करके जुलूस निकाला था। राजनांदगांव के तारनटोला में फुलवती को रात में घर से निकालकर पीटा गया। इस बीच वह किसी तरह भागने में सफल हो गई तो उसे दोबारा पकड़कर लाया गया और पीटा गया। फिर उसे तालाब में फेंक दिया। महिला तैरकर बाहर आ गई। फिर उसे बांधकर मारा गया। जिसमें वह मर गई। गांववाले उसकी लाश को नाले के पास लाकर जला दिया। इस प्रकरण में पूरा गांव जेल चले गया था। कवर्धा में फूलवंतिन वाले मामले में रात में गांववाले उसके घर पहुंचे और भौजी-भौजी की आवाज लगाई। उसका पति 3-4 साल पहले मर गया था, दो बच्चे थे उसके। जब उसने दरवाजा खोल दिया तो उन्होंने एक बच्चे का नाम लेकर कहा कि उसे तुमने बीमार किया, उसे ठीक करो। जब उसने इससे अज्ञानता जताई तो उसे पीटना शुरू कर दिया गया। वह भाग न सके इसके लिए उसके कपड़े उतारकर जला दिया गया। पिटाई से जब वह बेहोश हो गई तो उसे रस्सी में बांधकर दो किमी तक साइकिल के पीछे खींचा गया। जिसके बाद उसकी मौत हो गई। फिर उसे एक कुएं में पत्थर बांधकर डाल दिया गया। जिसमें पत्थर के अलग हो जाने के बाद उसकी लाश ऊपर आ गई। इस बीच रातभर उसके दोनों बच्चे गांव में अकेले घूमते रहे। अभी हम लोग बीच में वहां गए थे तो पता चला कि बच्चे अपने मामा के गांव चले गए हैं।

0. नए कानून को कितना कारगर पाते हैं, इसमें आपके हिसाब से क्या चीजें और होनी चाहिए?
00. हम लोग मांग करते रहे हैं कि इसमें जो जुर्माने की राशि है उसे और बढ़ाया जाए। वह इतना हो कि उससे उस महिला का पुनर्वास हो सके। इस राशि को सरकारी खाते में जमा करने की बजाए पीड़ित को दिया जाना चाहिए। ऐसी घटनाएं होने पर वहां के सरपंच आदि जनता के नुमाइंदों को जिम्मेदार माना चाहिए और उन्हें भी सजा होनी चाहिए। घटना के बाद पुलिस को कड़ाई से दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। कई बार पुलिस के ढीले-ढाले रवैए से भी एएसी घटनाओं को बढ़ावा मिलता। पुलिस को ऐसी सूचना मिलने पर पीड़िता की तुरंत मदद के लिए सामने आना चाहिए। जबकि होता यह है कि प्रशासन जब तक किसी की मौत न हो जाए और जब तक बड़ी प्रताड़ना नही होती, वह सक्रिय नहीं होता। ऐसा करके ऐसी घटनाओं की संख्या में कमी लाई जा सकती है।

0. इस अंधविश्वास के खिलाफ आप लोग किस तरह से प्रचार-प्रसार करते हैं?
00. हम लोग ऐसी घटनाओं के बाद गांव में जाकर वैज्ञानिक जागरूकता बढ़ाने का काम तो करते ही हैं, साथ ही गांव-गांव जाकर लोगों की बैठक लेते हैं। हम लोगों से पूछते हैं कि वहां कौन-कौन सा अंधविश्वास फैला है। हम लोगों को बताते हैं कि जब आपकी साइकिल, टीवी, ट्रैक्टर खराब होती है तो आप क्या करते हैं, आप उसे मिस्त्री के पास ले जाकर बनवाते हैं। लेकिन जब आप खुद बीमार होते हैं तो बैगा से झाड़-फूंक कराने लगते हैं। हम लोग स्कूलों, एनएसएस के कैंपों में जाकर वैज्ञानिक जागरूकता बढ़ाते हैं। कई बार जब हमें पता चलता है कि कोई बैगा लोगों को वेवकूफ बना रहा तो हम वहां जाकर उसका फंडाफोड़ करते हैं। उनसे पूछते हैं कि बताओ तुम्हारे साथ अगले 20 मिनट में क्या होने वाला है। वह बोलता है कि कुछ नही, उसे हम बताते हैं कि आप जेल जाने वाले हैं। बैगाओं द्वारा किए जाने वाले कई जादू हम उसे करके दिखाते हैं। कई बैगा जब हमें हड्डी निकालने या अन्य चीजें निकालने का दावा करते हैं, तो हम उन्हें कहते हैं कि हमारे साथ नक्सली इलाकों में चलो और यब बताओ कि कहां-कहां लैंड माइंस लगे हुए हैं। फिर क्या बैगा भाग खड़े होते हैं। गांवों में इकट्ठा लोगों को बताते हैं कि जब बाबा को अपने भविष्य के बारे में नहीं पता है तो यह आपके दुख कैसे दूर कर सकता है। पीलिया के फर्जी उपचार करने वालों का भी फंडाफोड़ करते हैं। समाचार पत्रों में लेख आधि के माध्यम से लोगों के बीच सही बात पहुंचाने की कोशिश करते रहते हैं। गांव में लोगों को इससे संबंधित पर्चे पुस्तकें भी बांटते हैं। जहां-जहां जाते हैं वहां मीटिंग के बाद निशुल्क नेत्र चेकअप का शिविर भी लगाते हैं, कई बार होता है कि मीटिंग 1 घंटे ही चलती है, लेकिन शिविर 4-5 घंटे तक लगाना पड़ता है। क्योंकि लोग बड़ी संख्या मेें आए हुए रहते हैं। हम लोगों को अपने से जोड़ने के लिए सभी को अपना नंबर-पता देकर किसी भी केस में सूचना देने का अनुरोध करते हैं। अब 12 साल बाद हमारे पास सूचनाएं आने लगी हैं।

0.कुछ और रोचक घटनाएं ?
00. राजानांदगांव की एक घटना हैं वहां पुराने चीरघर में कहा जाता कि यहां भूत रहते हैं। लोगों में काफी भय व्याप्त हो गया था। हम लोग वहां गए और रात में चीरघर में घुसे। वहां शराब, सिगरेट, नमकीन के पैकेट पड़े हुए थे। हमने लोगों से पूछा कि क्या यहां का भूत सराब, सिगरेट पीता है, फिर लोगों के समझ में आया कि उन्हें कोई वेवकूफ बना रहा था। बाद में उस चीरघर को तुड़वा दिया गया। बस्तर में पिछले साल हल्ला हो गया कि रात में एक प्रकाश पूंज घूमता है और जो उसे देख लेता है बेहोश हो जाता है। हम लोगों ने वहां कई रात इसकी खोज की तो पता चला कि एक आदमी कुत्ते के शरीर में टार्च बांधकर छोड़ देता है। बाद में लोगों ने उस कुत्ते को मार दिया।

0. इसके पीछे क्या कोई वैज्ञानिक आधार पाते हैं?
00. यह सभी अंधविश्वास की वजह से लोग करते हैं। जहां तक लोगों में भूत-भगवान के आने की बात है तो वह मानसिक बीमारी हो सकती है। ज्योतिष को बी मैं गलत मानता हूं। आपको याद होगा कि जब अब्दुल कलाम राष्ट्रपति बने थे तो किसी राजनेता ने उन्हें शपथग्रहण के लिए मुहूर्त निकालने का सुझाव दिया था। तब उन्होंने कहा था कि सूरज चमक रहा है। पृथ्वी घूम रही है, दिन-रात हो रहे हैं। तब तक मुझे किसी मुहुर्त की जरूरत नहीं है। मेरे लिए हर घड़ी, हर दिन शुभ है। जवाहरलाल नेहरू जी भी अंधविश्वासों के घोर विरोधी थे।

0. आपके अंदर इसके प्रति रूचि कैसे जागी ?
00. मुझे शुरू से यह सबी चीजें कचोटती थी। मन में सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति कुछ करने की इच्छा रहती थी। शुरू में अपने डाक्टर तथा और क्षेत्रों के दोस्तों से इसके लिए बात की। सभी ने साथ देने के तैयार हो गए और काम शुरू हो गया। शुरू में हम रायपुर के आसपास ही काम कर पाते थे। धीरे-धीरे संपर्क बढ़े तो हम पूरे छत्तीसगढ़ में जाने लगे हैं। हमारी संस्था में इस समय अलग-अलग फील्ड के करीब 50 लोग हैं। हमने कबी भी किसी तरह का सरकारी अनुदान नहीं लिया। इसके लिए शुरू में ही तय कर लिया गया ता। क्योंकि लोगों का कहना था कि लोग ऐसी संस्था कमाई के लिए बनाते हैं।

0. डाक्टरी के पेशे को कैसे समय देते हैं, कभी किसी को चैलेंज किया है?
00. समय तो उतना ही होता है, लेकिन मैं उसे किसी तरह मैनेज करता हूं। कुछ नुकसान तो जरूर होता है, लेकिन लोक हित में यह न के बराबर है। हम लोगों ने एमपी चुनाव के समय ज्योतिषियों को चैलेंज किया था कि बताएं कौन चुनाव जीतेगा। उसमें बहुत सारे ज्योतिषियों के पत्र आए, लेकिन कोई भी सही भविष्यवाणी नहीं कर सका।

"नक्सलवाद, मीडिया और जनसुरक्षा कानून "

नेशनल लुक समाचार समाचार पत्र में  आदरणीय संपादक निकष परमार जी के निर्देश पर "नक्सलवाद,  मीडिया और जनसुरक्षा कानून " विषय पर एक परिचर्चा शुरू की गई थी। जिसकी जिम्मेदारी निकष जी ने मुझे सौंपी थी। एक फरवरी 2008 से शुरू हुई श्रृंखला में से यहां प्रस्तुत है चुनिंदा लोगों के विचार ।



हमारे सवाल

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जन सुरक्षा अधिनियम के मुख्य बिंदु क्या हैं, खासतौर पर मीडिया के संदर्भ में? आम आदमी की जुबान में अगर हम समझना चाहें तो अखबार क्या छापे तो ठीक है, क्या छापे तो गुनाह?
>> नक्सली प्रवक्ता का पत्र छापना इस अधिनियम के तहत गैर कानूनी क्यों नहीं है? छत्तीसगढ़ के अनेक अखबारों में ऐसे पत्र छपते रहे हैं।
>>समाचार पत्र का संपादक कैसे तय करता है कि भेजा गया पत्र नक्सली प्रवक्ता का ही है, किसी और का नहीं? क्या वह नक्सली प्रवक्ता के हस्ताक्षर पहचानता है?
>>समाचार पत्रों में नक्सलियों के पत्र जिस जरिए से आते हैं, उनके जरिए क्या नक्सलियों को ट्रेस नहीं किया जा सकता? जैसे क्लोज सर्किट टीवी लगाकर या ई मेल का स्रोत पता लगाकर?
>>पत्रकार नक्सलियों के बीच रहकर आते हैं, उनका समाचार लाते हैं। यह गतिविधि जन सुरक्षा अधिनियम के तहत क्यों अपराध नहीं है?
>> पत्रकारिता में नैतिकता की परिभाषा क्या है? सूत्रों के हवाले से कोई बात लिखना और सूत्र का नाम न बताना इस नैतिकता के हिसाब से कितना सही है? अगर नक्सलियों का कोई क्लू है तो उसे पुलिस को न बताना, क्या यह समाज विरोधी काम नहीं, क्या यह पुलिस से असहयोग नहीं? नक्सलियों के बयान छापना पत्रकारिता की नैतिकता के हिसाब से कितना सही है?
>>राजधानी रायपुर में नक्सली गतिविधियों के तार एक मीडियाकर्मी से जुड़े पाए गए हैं। इसे किस तरह देखते हैं?
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(कुशाभाऊ ठाकरे जनसंचार एवं
पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति
डा. सच्चिदानंद जोशी के विचार)


"आजादी का समाज पर असर भी देखना चाहिए"

अभी मेरे पास इस कानून की प्रति तो नहींहै, इसलिए उसके ऊपर सीधा-सीधा बोलना ठीक नहीं होगा। समाचार पत्रों की स्वतंत्रता के लिए हम लोग पूरे देश अपने मूल अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग करते हैं। यह समाचार पत्र का विवेक रहता है कि वह क्या समाज और देश के लिए उचित समझता है जिसे वह छापना चाहता है। लेकिन यह बात दूसरे तरीके से भी लागू होती है कि हम जब भी कोई चीज छापें तो इस विवेक का जरूर इस्तेमाल करें कि समाज पर इसका कैसा असर पड़ने वाला है, या समाज के मनोबल पर कहीं इसका विपरीत असर न पड़े।
जो अखबार इस तरह के पत्र छापते हैं यह उनके विवेक पर निर्भर करता है। जहां तक मैं समझता हूं कि जब हम नक्सलवाद को छत्तीसगढ़ राज्य के संदर्भ में एक सामाजिक अभिशाप के रूप में देख रहे हैं, तो कहीं न कहीं इस चीज को भी कानून के दायरे में लाना चाहिए। आपका सवाल है कि संपादक नक्सली बयानों की विश्वसनीयता किस तरह तय करता है? इसलिए वह संपादक होता है कि किसी भी समाचार के स्रोत की विश्वसनीयता तय कर पाता है। यह बात सिर्फ नक्सली प्रवक्ता के लिए ही लागू नहीं होती, जब कोई दूसरा समाचार भी किसी सोर्स से आता है, तब भी संपादक ही अपने विवेक से यह तय करता है कि सोर्स विशवसनीय है कि नहीं, अगर वह सोर्स अथेंटिक है तो ही उस समाचार को छापें। वैसे तो समाचार पत्र के संपादक के पास दिन में हजारों चीजें-खबरें आती होंगी। इसी तरह की संवेदनशीलता नक्सली प्रवक्ताओं के पत्र को संदर्भ में संपादक, रखते होंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।
इन खबरों के जरिए नक्सलियों को ट्रेस करने का सवाल है हममें से कई तथा साधारण लोगों के मन में उठता भी होगा कि ऐसा क्यों नहीं होता। मुझे लगता है कि इसके लिए पुलिस व प्रशासन के पास बेहतर रणनीति होगी। क्योंकि यह बात सोचना कि हम लोग बहुत चिंतित हैं और प्रशासन उतना चिंतित और संवेदनशील नहीं है यह गलत होगा। निश्चित रूप से वे इस बात पर सोचते होंगे कि जिन स्रोत से ये पत्र आते हैं उन्हें ट्रेस किया जा सकता है कि नहीं। यह एक तकनीकी बिंदु है, इसलिए इस पर ले-मैन के जरिए टिप्पणी नहीं की जा सकती। नक्सलियों के बीच जाकर उनके समाचार लाने का जहां तक सवाल है, यहां फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात आती है। वे उनके बीच रहकर आते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो उनके लिए वहां आना-जाना बहुत सहज और सुगम है, दरअसल ऐसा नहीं है। जो भी पत्रकार वहां रहकर आते हैं, अगर उनसे बात करें तो आप यह भी जान पाएंगे कि वे कैसे जाते हैं और कैसे आते हैं। इसको दूसरे नजरिए से नहीं लेना चाहिए। कम से कम इसी बहाने ही वे वहां कुछ समाचार तो देते ही हैं। आपने नैतिकता का सवाल उठाया है। फिर वही बात आती है कि हमारी नैतिकता कौन नापेगा।हम अपनी दृष्टि से किसी चीज को नैतिक-अनैतिक मानते हैं, उसी दृष्टि से कोई अन्य विचार वाला भी उसे मान सकता है। जब हम अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करते हैं, तब खासकर इस बात को हमें देखना चाहिए कि क्या हमारी यह स्वतंत्रता समाज व उसके मनोबल पर कोई विपरीत प्रभाव तो नहीं डाल रही। जैसा कि हम देख रहे हैं कि नक्सलवादी गतिविधियों में निर्दोष व्यक्ति मारा जा रहा है, अनेकों लोग का जीवन अनिश्चय की स्थिति में झूल रहा है। जन सामान्य के मन में इस तरह की धारणा है कि इस नक्सलवादी गतिविधि से किसी का भी फायदा नही हो रहा है। जब हमारे देश में किसी भी समस्या को सुलझाने के लिए बहुत बेहतर रास्ते हैं तो कोई भी हिंसा का रास्ता क्यों अपनाए? यह प्रश्न जब तक हम सबके मन में नहीं उभरेगा, तब तक चाहे वे उनको कवर करने वाले पत्रकार ही क्यों न हो, तबतक इस बात का सार्थक समाधान नहीं होगा। हमारी नैतिकता के सबसे बड़े न्यायाधीश हम स्वयं है, इस चीज को हम सभी मीडिया में काम करने वालों को भी देखना चाहिए। राजधानी में नक्सलियों के शहरी सहयोगियों की जहां तक बात है, यह बहुत आश्चर्यजनक और चेतावनी देने वाला है। यह बात हमें पता चलती रहती थी कि नक्सलियों का शहरों में भी नेटवर्क है, कुछ लोग काम करते है, उनके समर्थक है, कुछ लोग उनसे सद्भावना रखते हैं। उसके बाद जब इस तरह के प्रकरण सामने आते हैं तो निसंदेह आश्चर्य होता है। हम सभी को अपनी नागरिक जिम्मेदारी समझते हुए और अधिक सचेत होकर काम करने की जरूरत है।
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(वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर के विचार)

"पत्रकारों को जिम्मेदारी समझनी होगी"

अखबार और पत्रकार को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। एक पत्रकार के रूप में मेरा यह कहना है कि जो सच है उसे छापना और जो असत्य है उसे नहीं छापना चाहिए। सच के सारे पहलुओं को भी हमें देखना चाहिए। अधूरा सच कभी नहीं छापना चाहिए। पत्रकार के रूप में हमने इसे अगर आजीविका का आधार बनाया है, तो समाज और देश के प्रति भी हमारी जिम्मेदारी बनती है। दूसरे धंधे-नौकरी वालों से हम इसीलिए अलग हैं। हमारी सबसे ज्यादा प्रतिबध्दता उस कमजोर आदमी के लिए होनी चाहिए, जिसके साथ न्याय नहीं होता। अगर इन बातों को ध्यान में रखकर हम कोई चीज छापते हैं, तो मुझे नहीं लगता कि हम किसी आपत्ति को न्योता देते हैं। नक्सली जो हैं वे आजकल नक्सली भी नहीं रहे। लेनिनवादी-माओवादी नक्सली थे, उनके जो मूल विचारक थे वे भी अब इनका साथ नहीं दे रहे। ये हिंसक रूप ले चुके हैं। उनका पक्ष अगर छापते भी हैं तो उसके ऊपर अपनी भी राय देनी चाहिए। समाज और देश के प्रति अपने दायित्वबोध को देखते हुए हमें उसके साथ अपनी टिप्पणी भी देनी चाहिए। नक्सलियाें के पत्र की पहचान का जहां तक सवाल है, वे लोग जिन माध्यमों का इस्तेमाल करके पत्र अखबारों के दफ्तरों तक भेजते हैं, उनमें बहुत कम संभावना रहती है कि यह उनका पत्र ना हो। अगर किसी ने गलत भेजा है तो वे तत्काल उसका खंडन भी करते हैं। इस मामले में वे बड़े सतर्क हैं। नक्सलियों को ट्रेस करने का काम पुलिस का है, पत्रकारों का नहीं। पत्रकार तथ्य और सच को सामने रखता है, विचारों को भी सामने रखते समय वह यह सावधानी अवश्य बरतता है, परंपरागत रूप से, कि वह व्यापक राष्ट्र व समाज हित के विरुध्द न जाय। मैं पंजाब में 6 साल रहा वहां हर रोज आतंकवादियों की ही खबरें छपतीं और पत्रकार-संपादक अपनी जान नहीं गंवाते, उनका विरोध करके। हमें यह समझना चाहिए कि जो मालिक हैं वह धंधा चलाने के लिए और पत्रकार नौकरी करने के लिए इस क्षेत्र में नहीं आया है। आज भी अगर समाज को जो थोड़ी सी उम्मीद बची है तो वह पत्रकारों से है। इसलिए उन्हें सतर्क तो रहना चाहिए। ये प्रशासन को पता करना चाहिए कि कहां से आया, किसने लाया। बहुत ज्यादा हो तो सरकार पत्र की फोटोकॉपी ले सकती है, हालांकि इसे देना भी आवश्यक नहीं है। अपने स्रोत को बताना आवश्यक नहीं है। नक्सली प्रचार चाहते हैं, और आजकल उनके पास बहुत साधन हैं। उनके पास करोड़ों का बजट होता है। जिसमें प्रचार के लिए भी लाखों रुपयों का प्रावधान रहता है। चूंकि हम पत्रकार हैं तो ऐसी अनुशंसा नहीं करेंगे कि ऐसा करने वाले पत्रकारों के विरुध्द जनसुरक्षा अधिनियम लगाया जाए, लेकिन पत्रकारों को स्वयं यह विचार करना चाहिए कि वे आखिर जवाबदेह किसके प्रति है, वे किसके साथ खड़े हो रहे हैं, किसकी क्या राजनीति है, कौन उनको किस रूप में इस्तेमाल कर रहा है।
इसके प्रति अगर वे सतर्क नहीं होंगे तो समाज में वे अपना सम्मान खो देंगे। जो समाज से तिरस्कृत हो जाएगा तो उसके लिखे का भी कोई प्रभाव नहीं होगा।
नक्सलियों को अधिक प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए। जब ये प्रमाणित हो चुका है कि वे लोग हत्यारे-अपराधी अधिक हैं, आर्थिक अपराधों में लिप्त हैं, देश विरोधी गतिविधियों में शामिल हैं इसके संकेत मिलने लगे हैं। कुछ दिन पहले गणपति ने, जो इनका महासचिव है, कहा कि उसे अलकायदा से भी हाथ मिलाने में ऐतराज नहीं है क्योंकि वह भी अमेरिका का विरोधी है। ऐसे में पत्रकारों को यह भी सोचना चाहिए कि वह जिस देश और धरती में रहता है, सर्वोपरि उसका हित है उसके लिए।
जिसे गिरफ्तार किया गया, वह स्वतंत्र पत्रकार नहीं क्रिमिनल था। एक आदमी का उसने मकान हड़पने की कोशिश की थी यह प्रमाणित हो चुका है। स्वतंत्र पत्रकार बहुत से लोग अपने को बताते हैं क्योंकि पत्रकारों की पहुंच मंत्रियों तक, पुलिस मुख्यालय तक, सचिवालय-मंत्रालय तक हो जाती है, इसलिए बहुत सारे अपराधी भी अपने आप को पत्रकार कहने लगे हैं, पत्रकारिता का लबादा ओढ़ने लगे हैं। जब वे कहीं नहीं होते तो अपने आप को स्वतंत्र पत्रकार कहने लगते हैं। यह वैसे ही है जैसे आजकल राजनीति में निर्दलीयों की बाढ़ आ गई है।

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(व्यंग्यकार व पत्रकारिता के प्राध्यापक
रहे विनोद शंकर शुक्ल के विचार)


"सच छापना नहीं, छिपाना गुनाह है"

हमारे देश में कानून और उसकी धाराओं की जानकारी के लिए वकीलों को ही अधिकृत कर दिया गया है, पढ़ा लिखा वर्ग भी जरूरत पड़ने पर ही कानून की किताबों में झांकता है। जनता की जान-माल की सुरक्षा के पर्याप्त कानून संविधान में हैं। संभवत: आतंकवादी और विघटनकारी शक्तियों से बचाव के प्रयोजन से ही जनसुरक्षा अधिनियम को अवतरित होना पड़ा है। पिछले कई दशकों से विभिन्न राज्यों में इन शक्तियों ने लोगों का जीना दूभर कर दिया है। कभी संसद-परिसर में विस्फोट होते हैं तो कभी मंदिर और बाजारों में। हिंसक शक्तियों ने कितनी निर्दोष जानें ली हैं, बताना मुश्किल है। मीडिया को वह छापने का पूरा अधिकार है, जो जनहित में है। अपनी कमजोरी छिपाने और आम लोगों को भ्रमित करने सरकार और उसकी नौकरशाही किसम-किसम के नाटक रचती है, जैसे नक्सालियों का फर्जी आत्मसमर्पण और फर्जी इनकाउन्टर। सलवा जुडूम के राहत शिविरों में आदिवासियों को राहत कितनी है और आफत कितनी, सबका बेबाकी से उद्धाटन होना चाहिए। सच छापना गुनाह नहीं है। दबाब और प्रलोभन में सच्चाई छिपाना गुनाह है। चौथा स्तम्भ कहलाने की सार्थकता भी तभी है। अभिव्यक्ति का अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है, जेल में बंद कैदी भी पत्रकारों से अपनी बात कहने का अधिकार रखता है। नक्सलवादी यदि आम लोगों तक अपनी कोई बात पहुंचाना चाहते हैं तो यह हक उन्हें है। प्रेस को प्रकाशन से पूर्व यह जरूर देखना चाहिए कि प्रकाशन से शांति-व्यवस्था को खतरा तो नहीं है। एकता और अखण्डता को तोड़ने जैसी बात तो उसमें नहीं कही गई है?
नक्सलियों के पत्र की पहचान का कोई यंत्र अभी तक आविष्कृत नहीं हुआ है। सम्पादक सामान्यत: सील और भाषा से ही पत्र की पहचान करता है। सब कुछ संपादक के विवेक पर निर्भर है। नकली या विवादास्पद पत्र की कोई घटना अभी तक नहीं घटी है। सामान्यत: नक्सली गोपनीय तरीकों के बहुत एक्सपर्ट होते हैं। वे उन साधनों के प्रयोग से बचते हैं, जिनसे उन्हें पहचाना जा सकता है। फिर भी अतिरिक्त सतर्कता बरती जाए तो पत्रवाहक या साधन पकड़ में आ सकता है।
पत्रकारों का उनसे मिलना और बात करना गैरकानूनी नहीं माना गया है। क्योंकि नक्सलियों के उद्देश्य, उनकी मांगें इसी माध्यम से जनता और सरकार तक पहुंचती हैं। इससे उनके संघर्ष और इरादों को समझना आसान हो जाता है। सरकार को भी समाधान का कोई रास्ता निकालने में सुविधा हो सकती है।
पता या सूत्र बताना पत्रकारिता की आचरण संहिता का उल्लंघन होगा। पत्रकारिता बहुत कुछ पत्रकार और स्रोत के विश्वास की बुनियाद पर खड़ी है। विश्वास भंग होने पर समाचार के महत्वपूर्ण स्रोत बंद हो जाएंगे। नैतिकता का कोई पक्का सांचा नहीं है। अपने देश के लिए दूसरे देश की जासूसी करना, किसी की प्राण रक्षा के लिए झूठ बोलना, पागल जानवर को गोली मार देना आदि स्थितियों में नैतिकता के मानदण्ड बदल जाते हैं। सामान्यत: यह माना जाता है कि नक्सलवाद के मूल में गैरबराबरी, अशिक्षा, शोषण और अन्याय का हाथ है। यह बहुत कुछ सही भी है। इसलिए नक्सलियों के बयानों को महत्व मिला। लेकिन निर्दोषों की हत्या का जो निर्बाध सिलसिला उन्होंने शुरू किया है, उससे उनका नया हिंसक चेहरा सामने आया है। आन्दोलन अपने मार्ग से भटक गया लगता है। किसी ने ठीक कहा है कि पुलिस गोली चलाती है तब भी आदिवासी ही मरता है और नक्सली गोली चलाते हैं, तब भी। एक कटु सत्य यह भी है कि नक्सलवाद के खात्में के नाम पर आने वाला बेशुमार पैसा भी समस्या के हल में बाधक है। समाधान से आवक बंद होने के भय से स्वार्थी तत्व इसे बनाए रखना चाहते हैं।
नक्सलियों को मिलने वाले हथियार और पैसों के स्रोत का पता लगाने में पुलिस नाकामयाब रही है। एक स्वतंत्र पत्रकार कुछ सफेदपोश महिलाएं और कुछ दर्जियों की कलई खुलने से शहरों में उनके नेटवर्क का पता अब चला है। वर्षों से यह सिलसिला चल रहा होगा, जहां तक स्वतंत्र पत्रकार का प्रश्न है, धन और सुविधाओं के प्रलोभन ने उसे आपराधिक मार्ग पर डाल दिया होगा।
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(वरिष्ठ पत्रकार संजय द्विवेदी के विचार)

"नक्सलियों की बात भी सामने आनी चाहिए"

सरकार ने जिस भी मंशा से अधिनियम बनाया हो, प्रकट तो यही होता है कि वह नक्सलवाद पर नियंत्रण करना चाहती है। छग की परिस्थितियां साधारण नहीं हैं, जब परिस्थितियां साधारण ना हों तो सरकार को ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं, लेकिन सरकार का जो काम करने वाला तंत्र होता है, उसके काम करने का अपना तरीका होता है, जिसमें कई बार कानूनों का दुरुपयोग होता है। कानून का दुरुपयोग ना हो यह सावधानी सरकार के राजनीतिक तंत्र और कार्यकर्ताओं को रखनी होगी। पुलिस और प्रशासन का जो मौजूदा तंत्र है, वह किसी भी चीज में गड़बड़ी का रास्ता तलाश ही लेता है। अगर सरकार इसे काबू में कर ले तो कोई समस्या नहीं है। हम एक डेमोक्रेटिक सेटअप में रहते हैं और उसमें कोई अखबार दूसरे पक्ष को छापता है तो वह गलत नहीं है। वामपंथी विचारधारा वाले लोगों की सहानुभूति उनके साथ होती है, इस तरह के जो राजनैतिक कार्यकर्ता हैं वो अपनी बात कहते हैं, उनकी बात छपती भी है। इसको छापने और न छापने को लेकर तो मैं बात नहीं कर सकता क्योंकि सबको अपनी बात कहने का हक है। अगर किसी को हक दे रहा है अपनी बात कहने का तो इसमें कोई बुराई नहीं है। आपने देखा होगा कि टेलीविजन चैनलों पर बड़े-बड़े माफियाओं, दाऊद इब्राहिम, छोटा शकील-बड़ा शकील सबसे बात की जाती है। उस तरह से नक्सली बात कह रहे हैं। बात कहने में कोई बुराई नहीं, वे बात कह सकते हैं और उनकी बात सामने आनी ही चाहिए।
नक्सली बयानों की प्रामाणिकता के बारे में हमें जरूर विचार करना चाहिए। हम लोग इस बात की सावधानी रखते हैं कि जो लोग प्रकट रूप में सामने नहीं आते उनकी बात का क्या औचित्य और कितना आधार है। मुझे नहीं लगता कि अखबार वाले इसे लेकर कोई गंभीर रवैया अपनाते हैं क्योंकि इतना समय नहीं होता कि हर चीज की जांच की जा सके। जो लोग समाज में हैं ही नहीं और भूमिगत तरीके से अपना आंदोलन चला रहे हैं, उनके बारे में जांच करना कठिन हो जाता है। उसका तरीका यही है कि हम इस तरह की चीजों को बहुत ज्यादा अहमियत नहीं देते। कम से कम मैं इस बात को स्वीकार करता हूं कि मैं इन चीजों को अपने अखबार में ज्यादा तवाो नहीं देता। नक्सलियों को ट्रेस करने का काम सरकार का है, इसमें कोई मदद मांगेगा तो की जाएगी। दरअसल यह अखबार वाले का काम नहीं है कि वह नक्सलियों के पीछे लगे और उसकी जांच करे। यह सरकार का काम है कि वह अपने तरीके से इन चीजों की जांच करे और पता लगाए।
इस मामले में मैं अपने आप को असहाय महसूस करता हूं। क्योंकि मेरे सामने कोई प्रकट रूप में आता तो नहीं है, और न यह कहकर आता है कि मैं नक्सली हूं। दिनभर में बहुत सारे लोग अखबार के दफ्तरों में विज्ञप्ति देकर जाते हैं, इसमें एक-एक को वॉच तो नहीं किया जा सकता है और हमारे यहां क्लोज सर्किट का इंतजाम भी नहीं है। आप कैसे वॉच करेंगे कि वह कौन सी विज्ञप्ति देकर गया है, पता चला किसी धार्मिक आयोजन की विज्ञप्ति देने वाला अंदर हो गया क्योंकि उसकी पुलिसवाले से दुश्मनी थी। इस तरह के प्रयोगों के बहुत सारे खतरे हैं।
अधिनियम तो सरकार ने बनाया है, उसे जो बिंदु शामिल करने थे उसने शामिल कि ए हैं। ये तो कानून बनाने वालों से ही पूछा जाना चाहिए कि वे इन चीजों को क्यों कर रहे हैं। दूसरी बात मैं नक्सलियों से बातचीत करने, संवाद करने को गलत नहीं मानता। क्योंकि सरकार भी कहीं न कहीं ये कहती रही है कि हम नक्सलियों से बात करेंगे, आंध्र जैसे कई राज्यों में नक्सलियों से चर्चा की भी गई। वे टेबल पर आए और सरकार ने इनसे बात की।
अनेक जगहों पर जहां हिंसक आंदोलनों या आतंकवादी आंदोलनों में जो लोग रहे उनसे बात की गई। बात की भी जाती है, क्योंकि हम जिस गणतंत्र में रहते हैं, जिस लोकतंत्र की बात कहते हैं , उसमें अंतत: बातचीत से ही चीजें हल होंगी। समस्या यही है ना कि नक्सली बंदूक लेकर आ रहा है, कहा उससे यह जा रहा है कि हथियार रखकर आइए और बात कीजिए। अगर वह हथियार रखकर बातचीत करता है या संवाद का रास्ता अपनाता है तो लोकतंत्र में बातचीत के अलावा समाधान क्या है। लोकतंत्र में तो बातचीत करने का स्पेस है ही और यह अकेली व्यवस्था है कि सबको बातचीत के आधार पर अपनी समस्या का समाधान खोजने का हक है। और मुझे लगता है कि अगर नक्सली इस प्लेटफार्म पर आते हैं तो यह बहुत अच्छी बात है। उनसे बातचीत हो जाए विमर्श हो जाए तो इससे अच्छी क्या बात हो सकती है, अगर ऐसी परिस्थिति पैदा हो जाए तो मुझे लगता है कि पूरे देश को इससे राहत मिलेगी, छत्तीसगढ़ को भी फौरी तौर पर फायदा होगा।
लेकिन बातचीत का जो इस्तेमाल है, या बातचीत के समय का जो इस्तेमाल है, नक्सली इसे अपनी रणनीति बनाने, अपनी तैयारी करने और विश्रामकाल के लिए करते हैं कि बातचीत करके सरकार को गुमराह करते हैं, ताकि सरकार थोड़े समय के लिए आपरेशन बंद कर दे। ये जो चालाकियां हैं वह ठीक नहीं हैं और मुझे लगता है कि इसमें सरकार जो है-जैसी है वो तो ठीक है पर नक्सलियों का इरादा भी बहुत बातचीत करके समाधान निकालने का नही है।
सूचनाएं देना नैतिकता और अनैतिकता का प्रश्न नही है। हमारा काम सूचना देना है, हम इसके चक्कर में फंसेंगे तो बहुत सारी सूचनाओं से अपने पाठकों को वंचित कर देंगे। हम बहुत सारे ऐसे लोगों की खबर छापते हैं, तमाम ऐसे राजनेता हैं जो बहुत गलत कामों में लिप्त हैं, बड़े-बड़े अपराधों में शामिल लोगों की भी चीजें छपती हैं तो नक्सली भी अगर कोई अपनी बात कह रहा है या किसी विचार के तहत अपनी बात कहना चाह रहा है तो उसकी बात और चीजें छपेंगी। कोई बड़ी घटना हो गई जिस पर वह वक्तव्य देना चाहता है तो ये छापी जातीं हैं। बेनजीर भुट्टो की हत्या हुई, एक आतंकवादी संगठन ने कहा कि हमने हत्या की है, तो उसका नाम तो हमें छापना ही पड़ेगा। वह किसी भी स्रोत से बताए, ई-मेल भेजकर या विज्ञप्ति के माध्यम से या अखबार के दफ्तर में फोन करके। हम अपने पाठक को सूचना से वंचित नहीं कर सकते।
हमारी प्राथमिक जिम्मेदारी सूचना देने की है, उसमें हम कहीं नक्सली या आतंकवादी के पक्ष में दिखें तो आप हमारी नैतिकता-अनैतिकता पर प्रश्न उठा सकते हैं। हमें जहां से भी सूचना प्राप्त होती है, हो सकता है कि वह अधूरी हो, कच्ची हो, जो हमें सूचना दे रहा है गलत भी हो , तो हम उनके मार्फत ही छापते हैं। जांच करने का काम हमारा नहीं है, और इसके लिए न सरकार ने कोई हथियार या अधिकार हमें दिए हैं। यह जिम्मेदारी हम ले भी नहीं सकते। हमारा काम सूचना को सामने ला देना है।
पत्रकार को कोई विशेषाधिकार तो है नहीं, न कोई मजिस्ट्रेट पॉवर है। गलत काम में लिप्त पत्रकार जेल जाते रहे हैं, पहली बार पत्रकार कोई जेल गया है, ऐसा तो है नहीं। जो भी कोई गलत काम करता है तो सरकार के पास पर्याप्त अधिकार और कानून हैं, जनसुरक्षा कानून की भी जरूरत नहीं है। ऑलरेडी आपके पास इतने सारे कानून हैं, राजद्रोह जैसा कानून है, जिसके तहत गलत काम करने वालों को अंदर कीजिए। मगर इतना भर ध्यान रखने की जरूरत है जिसे मैं बार-बार कह रहा हूं कि इसके चलते किसी निरीह और निर्दोष आदमी का गला सरकार-पुलिस के हाथ में नहीं आना चाहिए।
कलम की आजादी पर हमले होते रहे हैं, अगर कोई अतिरिक्त आजादी लेता है तो उसे सजाएं भी होती रही हैं। यह पहली बार थोड़ी है कि पत्रकार जेल गया है। अभी मिड डे के पत्रकारों को सजा हुई है एक मामले में। तो पत्रकारों को सजा होना, जेल जाना यह नई बात नहीं है, ये तो होता रहेगा। लेकिन कानून का दुरुपयोग न हो इस पर अगर सरकार रख ले तो उसे पत्रकारों का भी समर्थन मिलेगा। हम खुद भी नहीं चाहते कि हमारी बिरादरी के लोग बदनाम हों या गलत काम में शामिल हों।

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(वरिष्ठ राजनीतिज्ञ व छत्तीसगढ़ राज्य वित्त
आयोग के पूर्व अध्यक्ष वीरेन्द्र पाण्डेय के विचार)


"नक्सलियों को महिमामंडित नहीं करना चाहिए"

जनसुरक्षा अधिनियम और उसमें मीडिया से संसंधित कानूनों की जानकारी नहीं है, इसलिए मैं इस पर कुछ नहीं कहूंगा। हां इतना जरूर है कि मीडिया को हमेशा समाज की सच्चाई बगैर किसी भेदभाव व लगाव के जनता के सामने लानी चाहिए। जहां तक नक्सलियों के पत्र छापने का सवाल है तो मेरा व्यक्तिगत विचार यह है कि मीडिया इसे छाप सकता है, लेकिन उसे यह जरूर देखना चाहिए कि कहीं वह सामग्री समाज या राष्ट्रविरोधी तो नहीं और कहीं उसका समाज के मनोबल पर विपरीत असर तो नहीं पड़ रहा। यह काम तो हो सकता, लेकिन मीडिया की भी अपनी आचार संहिता होती है, मेरे हिसाब से उसका काम किसी भी चीज की जांच करने का नहीं है। वह सिर्फ पाठकों-दर्शकों तक सूचना पहुंचाने के लिए जिम्मेदार होता है। बाकी प्रशासन का काम है कि वह तथ्यों की जांच करें। जो लोग नक्सलियों के पास जाकर बातचीत करके समाचार लाते हैं, मैं इसे भी गलत नहीं मानता, क्योंकि लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का हक है। पत्रकार उनकी बात, विचार सामने लाते हैं, वे ही नक्सलियों के नरसंहार या और समाज विरोधी काम को भी जनता के सामने लाते हैं। इसलिए मैं नक्सलियों के संपर्क में सिर्फ समाचार के लिए रहने वाले पत्रकारों को उनके काम का हिस्सा मानता हूं। हालांकि मैं ये भी मानता हूं कि मीडिया को भी अपने सामाजिक दायित्व को समझना चाहिए और बेवजह नक्सलियों को महिमामंडित नहीं करना चाहिए। एक मीडिया वाले की नक्सलियों के साथ संलिप्तता को जो सवाल है, उसमें मैं यह कहना चाहूंगा कि एक की वजह से पूरी बिरादरी को गलत नहीं कहा जा सकता। जो लोग पत्रकारिता की नैतिकता के विरूध्द जाकर अपने निजी स्वार्थ या फायदे के लिए राष्ट्रविरोधी काम करने लगते हैं, उन्हें पत्रकार नहीं माना चाहिए। पत्रकार को सच्चाई जनता के सामने लानी चाहिए। उसे किसी लाभ के लिए पत्रकारिकता का लबादा नहीं ओढ़ना चाहिए।
एक व्यक्ति द्वारा किसी समाजविरोधी के साथ विध्वसंक कार्य करने का उसके समूह या बिारदरी पर असर नहीं पड़ता। इसे ऐसा भी समझा जा सकता है कि आतंकवादी गतिविधियों में 99 प्रतिशत मुस्लिम समाज के लोग शामिल पाए जाते हैं, लेकिन इसकी वजह से आप पूरे समाज को इस नजर से नहीं देख सकते हैं। कुछ गिनती के लोगों की हरकत के लिए किसी बिरादरी को जिम्मेदार नहीं माना जाना चाहिए।

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(शहर के वरिष्ठ अधिवक्ता फैजल रिजवी)

"नक्सलवाद अपने मार्ग से भटक गया है"

जनसुरक्षा जैसे काक्वनून विशेष परिस्थितियों के लिए बनाए जाते हैं। जब सरकार को यह लगता है कि मौजूदा कानून, आईपीसी, सीआरपीसी आदि के जरिए विघटनकारी या राष्ट्र विरोधियों को नहीं संभाला जा सकता है, कानून की बारीकी के लिए या राष्ट्रविरोधी कार्य करने वालों से कड़ाई से निपटने के लिए सरकारें ऐसा कानून बनाती हैं। जहां तक छग जनसुरक्षा कानून और मीडिया के संबंध का सवाल है, मेरी जानकारी में इसमें मीडिया के लिए अभी अलग से कोई प्रावधान नहीं किया गया है। पत्र छापने के संबंध में मेरी जानकारी के अनुसार नक्सलवाद अभी प्रतिबंधित नहीं हुआ है। यह एक विचार धारा के रूप में -जाना जाता है, जो आतंकवादी संगठन होते हैं, उससे इसे अभी कंपेयर नहीं किया जा रहा है। नक्सलियों के फेवर में जो चीज आएंगी या प्रचार में या छवि बनानेमें सहायक होगीं, उनके कार्यों को अच्छा बताने की कोशिश करनी वाली सामाग्री को तो एक नजर में उनके द्वारा भेजा हुआ माना जा सकता है। रही बात इनके स्रोत पता करने की तो अभी तो पुलिस ऐसा उपाय कर रही है, टेलीफोन आदि माध्यमों से वह इनका पतासाजी करती रहती है। मेरे हिसाब से अब देश-प्रदेश में जो हालात बने है उसको देखते हुए सरकार को चाहिए कि बाजार, स्टेशनों, चौराहों आदि सार्वजनिक स्थानों में क्लोज सर्किट टीवी लगनी ही चाहिए, सरकार को जागकर अब यह करना चाहिए, नक्सलवाद पहले विचारधारा व सोच थी, लेकिन अब यह भटक गया है, मगर अब आम इंसानों पर हमले होने के बाद यह बदल गया है, अब इसके प्रति लोगों की सोच बदलनी चाहिए। अब इसे समाज सुधारक के रूप में नहीं देखा जा सकता। जहां तक नक्सलियों के बीच पत्रकारों के जाने का सवाल हो तो पत्रकार को इसमें दूत के रूप में देखा जाना चाहिए, वह यह प्रयास करता है कि नक्सलियों की बात या विचार को सामने लाए, ताकि इसका शांति के लिए उपयोग हो, पत्रकार यह समाज हित में करता है, हालांकि पत्रकार को किसी तरह से नक्सलवाद को बढ़ावा देने से बचना चाहिए। उसे सिर्फ नक्सलियों की बातें सामने लानी चाहिए। उसके पक्ष में उसे खड़ा नहीं होना चाहिए। सूत्रों के नाम बताने के संबंध में जो कानून है, उसमें प्रावधान है कि पुलिस अपने मुखबिर, वकील अपने क्लाइंट, पति-पत्नी के बीच की बातचीत किसी को भी न बताने के लिए व्यवस्था है, उसे यह अधिकार प्रदान किया गया है। लेकिन पत्रकार के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, उसे सूत्र का नाम कानूनी रूप से बताना होगा, अगर सरकार या अदालत चाहे। मीडिया स्वतंत्र हैं, मेरा व्यक्तिगत विचार है कि अगर नक्सल सामाग्री राष्ट्रविरोधी है तो इसे नहीं छापना चाहिए। यह देखना चाहिए कि कहीं उसका जनहित, शांति या समाज के मनोबल पर विपरीत असर न पड़े। रही बात स्वतंत्र पत्रकार की तो कोई भी व्यक्ति अगर गलत काम या राष्ट्रविरोधी काम करता है तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होनी ही चाहिए। फिर वह चाहे पत्रकार, नेता, वकील, अधिकारी कोई भी हो।

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(वरिष्ठ अधिवक्ता एस.के.फरहान)

"एक्ट बनने के बाद मीडिया भी संभला है"

जनसुरक्षा अधिनियम 2005 जो बना है, उसमें मीडिया के लिए अलग से तो कोई प्रावधान किया नहीं गया है। लेकिन जहां तक छापने न छापने का सवाल है, तो आप ऐसी चीज प्रकाशित नहीं कर सकते हैं, जिससे नक्सलियों की नीति को बढ़ावा मिलता है या फिर उनके प्रचार तंत्र का हिस्सा बनते हैं, कुल मिलाकर अगर कोई भी मीडिया अपनी खबरों के माध्यम से उनके साथ खड़ा हुआ लगता है तो यह जनसुरक्षा अधिनियम के दायरे में आएगा।
अगर नक्सली संगठन सरकार द्वारा प्रतिबंधित हैं तो मीडिया नक्सली प्रवक्ता का पत्र भी कानूनन नहीं छाप सकती। क्योंकि अगर आप उनका पत्र छाप रहे हैं तो यह उनके साथ सहयोग करने की श्रेणी में आएगा। मेरे हिसाब से संपादक के लिए यह तय करना कठिन होता होगा कि नक्सली प्रवक्ता के नाम से आया पत्र असली है कि नहीं, कोई अन्य व्यक्ति भी नक्सली प्रवक्ता के नाम से पत्र लिखकर मीडिया के पास तक पहुंचा सकता है। हालांकि मीडिया के पास भी अपने स्रोत होते होंगे और संपादक पत्र के कंटेंट के हिसाब से भी इसका अनुमान लगा लेता होगा।
शासन अगर चाहे तो नक्सलियों के पत्र जिस जरिए से आते हैं, उसे आसानी से पकड़ सकता है। क्योंकि नक्सली जिस तरह से आम नागरिकों की हत्या कर रहे हैं, उसे देखते हुए सभी पुलिस का सहयोग करने के लिए मानसिक रूप से तैयार हैं। जहां तक पत्रकारों का नक्सलियों से मिलने का और उनकी खबरें लाने का सवाल है तो जनसुरक्षा अधिनियम के तहत यह अपराध है। ये तो शासन और पुलिस की मेहरबानी है कि वह ऐसा नहीं कर रही है।
हालांकि इसके पीछे कारण भी है कि पुलिस किसी पत्रकार के लिखे हुए के आधार पर न्यायालय के सामने यह साबित नहीं कर सकती कि वह नक्सलियों से सही में मिला था। लेकिन अगर पुलिस चाहे तो छपे आधार पर भी कार्रवाई कर सकती है। क्योंकि वह आरोप लगा सकती है कि पत्रकार नक्सलियों से मिलने गया था तो उसने नक्सलियों को धन या संसाधन भी पहुंचाया।
आपने देखा होगा कि जब यह एक्ट बन रहा था तो मीडिया ने इसका विरोध किया था, फिर भी जब यह एक्ट पास हो गया तब से मीडिया में बहुत बदलाव भी आए हैं, अब पत्रकार संभलकर काम करता है। रही बात नैतिकता की, तो पत्रकार का कर्तव्य है कि वह सभी चीजों को सही नजरिए देखे, उसे गलत का साथ नहीं देना चाहिए। और अभी तक यह साबित नहीं हुआ है कि नक्सलियों का उद्देश्य समाज हित में है। और पत्रकार कोई नक्सलियों का गुणगान भी नहीं करता है, तब तो उनके समाचार को सामने लाया ही जा सकता है।
जो पत्रकार पकड़ाया है उसे पुलिस ने पत्रकार होने के कारण नहीं गिरफ्तार किया है। उनका पहले यह पेशा रहा होगा। उनके पास ऐसी अवैधानिक चीजें पकड़ी गईं हैं, जिनका नक्सलियों से संबंध है। इस वजह से पकड़ा गया है। उन्हें पत्रकार होने के कारण नहीं पकड़ा गया है।

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